Monday, June 27, 2011

कल अपना भी यही समां होगा

मंद मंद बह रही थी , पुरवाई
महकते फूल , कलियाँ इठलाई 
हर तरफ , ख़ुशी का आलम था .
कोशों दूर तक थी , उनसे तन्हाई 
पर अचानक 
एक झोंका हवा का जो आया 
गिर गए चंद पात , शाखों से .
देखकर , उनका यह गमें मंज़र 
चीख उठे तमाम नवपल्लव 
चू पड़े थे , अश्क आँखों से 
कि
कल अपना भी यही समां होगा .
- डॉ. मुकेश राघव 

4 comments:

Mahendra Singh Thakur said...

Dr. Raghav, I have red all the poems of yours ....Oh!! My God So much emotional and sentimental., where were you till this date . Welcome to KAVAY GOSTIES , I will inform you through this messanger.
Thanks

श्रीमती कपिला देवी said...

डॉ. मुकेश जी , कितनी और मार्मिक कविताएँ समेटे बैठे हैं ?? हर कविता लगता है पात्र मुझे ही चूना है. सभी रचनाएँ अति उत्तम हैं .
धन्यवाद

श्रीमती मालती शर्मा said...

डॉ. राघव साहिब , अच्छे और संवेदनशील ब्लॉग के लिए साधुवाद

श्रीमती कोकिला कश्यप said...

डॉ. राघव साहिब , आपकी कविताएँ वास्तव में अंतर्मन को छू जाती हैं . क्या दर्द ही कविता का नाम है .
धन्यवाद