Friday, June 10, 2011

विशाल ...... पर , कड़वा ???

नदी भी
कितना रोती थी ,
अपना अतीत याद कर ,
कभी तो , उसके
शीतल , मीठे
जल को
सब पीते थे
चाव से !
पर .......
आज इस समुद्र में
मिलने पर , पीना तो दूर
" कुरला " तक करना पसंद नहीं करते
सच ही तो है
समुद्र समान
विशाल , पर अंतर्मन इतना  कड़वा !!
क्यों इतने कडवे होते हैं ,
ये  , अपने को बड़े समझने वाले लोग ??
- डॉ. मुकेश राघव

5 comments:

Unknown said...

डॉ.साहेब "क्यों कड़वे होते हैं बड़ा समझने वाले ..."रचना अच्छी एक सवाल मन में छोड़ गयी है इसका भी जवाब साथ होता तो ला ज़वाब रचना होती सर (कोशिश करता हूँ ज़वाब तलाश करने की सवाल ये है की मीठा पानी डालने के बाद भी समुद्र में खारा क्यों हुआ ?ख़राब क्यों हुआ ?इसका कारन खोजने पर ज़वाब सहज में मिल जायेगा ,हम दूसरों को दोष देते है अपनी करनी पर ध्यान नहीं देते ,ये परक्रिया है ये न हो तो वर्षा कैसे हो .फिर भी रचना ने इतना सोचने को मजबूर किया ,दमदार तो है ही साधुवाद

MUKESH RAGHAV said...

डॉ. जोगा सिंह जी , धन्यवाद , नदी का मीठा पानी समुद्र में मिलने पर खारा हो जाता है . आज के इस युग में , यही तो सब हो रहा है . संगत का असर या फिर नियति का नियम . बस यहीं पर आ कर सत्संग का महत्व समझ आ जाता है .सादर

श्रीमती सरिता सपरा said...

डॉ. मुकेश जी , आपकी ताज़ा कविता , नदी और समुंदर के बारे में , तो नहीं , परंतू समज पर एक कटाक्छ है. आम जन मानूस मीठा ही होता है . परस्थितिया उसे एक विशाल संघर्ष से झूझने के बाद खारा बना देती हैं . क्या नदी का समुंदर से मिलना संधर्ष नहीं है ??
धन्यवाद

श्रीमती मंजीत कौर भिंडर said...

डॉ.मुकेश राघव , आप द्वारा रचित , कविता नदी और समुंद्र के बारे में काफी अच्छी तो है , अप्रोकच्छ रूप से आज के इंसान पर भी परिलिक्षित हो रही है . कविता भी छोटी है , पर अर्थ विशालतम हैं , चाहे जीवन के किशी भी क्षेत्र में देख लें . अति सुंदर .
साधुवाद .

डॉ. मनमोहन सिंह " कमल " said...

डॉ. मुकेश जी , आप के पास , इसी कौन सी चाबी है , जिससे आप डाक्टरी के साथ साहितिय्क गतिविदिओं में भी बखूबी योगदान कर लेते हैं . कवितायेँ बहुत अच्छी हैं .
साधुवाद